इन अजनबी-सी राहों पर बढ़ा जा रहा हूँ अकेला,
ना ये पता की कौन है मेरा और मैं हूँ किसका
क्या मेरा आदि है और क्या है अंत
किसे समझूं अपना और कौन है पराया
ना समझ पा रहा हूँ वो रिश्ते जो बन रहे हैं
अनजाने, अनछुए, अचल, अविकल, अस्थिर से
बस, बढ़ा जा रहा हूँ अकेला-अकेला||
दिल में एक तमन्ना है कि कुछ कर दिखाना है
पर क्या है वो जिसे पाना चाहता हूँ कुछ खोकर
क्या है वो जिसके लिए कर हूँ ये संघर्ष
कभी ढूंढता हूँ बाहर तो कभी खुद के भीतर
पर मिलता है तो एक खाली-खाली सी अहसास
और भर आते हैं नयन क्या सोचकर, नहीं जानता
बस, बढ़ा जा रहा हूँ अकेला-अकेला||
अगर कभी सोचता हूँ मंजिल के लिए
तो दिखाई देता है एक अथाह सागर
जिसका ना कोई ओर है, ना छोर
उसमें फंसी एक लहर-सा महसूस करता हूँ
जो बढ़ रही है ये सोचकर कि कल मेरा होगा
पर क्या है इस कल में जो मेरा होगा, नहीं जानता
बस, बढ़ा जा रहा हूँ अकेला-अकेला||
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