सब बढ़ चले अपने रस्ते,
फिर भी मैं खड़ा वहीँ हूँ,
ये तो मैं खुद भी नहीं जानता
के मैं ऐसा क्यूँ हूँ...
सब अपने ही रंग में रंग रहे,
अपनी-सी धुन में बढ़ रहे,
क्या मैं पीछे रह गया हूँ,
या फिर बे-रंग हो गया हूँ,
ये तो मैं खुद भी नहीं जानता
के मैं ऐसा क्यूँ हूँ...
जो आज आगे दिख रहा है,
कल वो पीछे रह जाएगा,
इस मंज़िल को पाने के बाद,
इसका मोल भी तो कम हो जाएगा,
मैं तो आज भी पीछे मुड़ के देख रहा हूँ,
जो नहीं मिला उसे ढूँढ रहा हूँ,
ये तो मैं खुद भी नहीं जानता
के मैं ऐसा क्यूँ हूँ...
भीड़ से डर लगता है क्यूँ,
अकेले में दिल धड़कता है यूँ,
अब तो बस अकेले ही चलना चाहता हूँ,
कुछ यादों में ही सिमटना चाहता हूँ,
ये तो मैं खुद भी नहीं जानता
के मैं ऐसा क्यूँ हूँ...
यहाँ तो मुझ-सा भी कोई नहीं,
या मैं ही सबसे अलग हूँ,
ये तो मैं खुद भी नहीं जानता
के मैं ऐसा क्यूँ हूँ...