Monday, 7 December 2015

नशा

अकेलेपन का भी अजब सा ही नशा है,
ना आगे बढ़ने की होड़, ना कोई जोड़-तोड़,
किसी से कुछ लेना नहीं, किसी का कुछ देना नहीं,
ना किसी से पूछना-पुछाना, ना किसी को कुछ बताना,
बना लिया तो खा लिया या फिर थोड़ा पानी पी लिया,
कुछ ना मिला तो अकेलेपन को ही जी लिया,
कोई बात भी करे तो शोर सा महसूस होता है,
रात हो या दिन, कुछ और सा महसूस होता है,
एक सुनसान सा कोना ही अपना सा लगता है,
इस अकेलेपन में जहां ख्वाब कहीं जलता है,
कोई कितना भी बाह्यमुखी बन ले,
मन से तो हैं हम सब अकेले ही,
दुनिया की इस भीड़ में खुद को तलाश रहे हैं,
जहां वक़्त ही वक़्त है, उस अकेलेपन से भाग रहे हैं,
इस अकेलेपन से दोस्ती करने से क्यूं डर लगता है,
किसी को पराया तो किसी को ये घर लगता है,
आये भी अकेले ही थे और जाना भी है अकेले,
इसी रोशनी में रह जाएंगे दुनिया तेरे ये मेले ||

1 comment:

  1. bahut sundar kavita lagti hai muze bhai ye.. "दुनिया की इस भीड़ में खुद को तलाश रहे हैं"

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