हम चलते रहे और कारवां बनता गया,
कुछ थक गये और साथ छोड़ गये,
कुछ ने हमें सराहा और जुड़ते गये,
जिन्होंने छोड़ा, वो भी अपने ही थे,
जो साथ चले, वो भी अपने ही हैं,
फर्क सिर्फ इतना मात्र है कि,
जो साथ नहीं, वो अनभिज्ञ हैं,
रिश्तों की उस डोर से,
जो बांधे है उन्हें-मुझे आज भी,
जो साथ हैं, वो महसूस कर रहे हैं,
उस अहसास को, जो बसा है मुझ में,
और जोड़ रहा है कुछ अनकहे रिश्ते |
एक समय वो भी आएगा,
जब अस्तित्व के इस काल-चक्र में,
मानवता का हनन प्रश्न-चिन्ह लगाएगा,
तब ना मेरा कोई रूप होगा ना तेरा,
बचेगी बस वो डोर जो जोड़े मुझे तुझ से,
और जिसकी क्षमता का प्रमाण,
नहीं लगता उसके आकार से,
बल्कि उसमें बसे गूढ़ तत्व से,
जो दे रहा है एक नया स्वरुप,
हर उस एक जीवात्मा को,
जो जुडी है उस डोर के माध्यम से,
चाहे-अनचाहे, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में ||
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