सूरज फिर से ढलने लगा है,
और छाने लगा है रात का सन्नाटा,
जो अहसास दिला रहा है अकेलेपन का,
अब डर लगने लगा है इस अकेलेपन से,
कुछ पल रोशनी में जो रहो,
आदत-सी हो जाती है जैसे,
पर रोशनी तो आती है अपने मिजाज़ से,
उसे नहीं मतलब तुम्हारे सन्नाटे से,
तुम्हारे मन के भीतर छुपे भय से |
हर रात से ये ही सवाल करता हूँ मैं,
के तुम तो आ जाती हो हर रोज़,
मेरे मन को उद्वेलित करने,
कभी-कभी सुबह को भी निगल जाती हो,
कभी कोहरे की चादर बिछाकर,
तो कभी बादलों के साये में छिपाकर,
इंतज़ार करना निर्बलता है या असहायता,
जो भी है, जुड़ा है हर रात के आईने से,
और कल की उज्ज्वलता का इंतज़ार भी,
तो होता है रात की हथेली पर ही,
क्या रात इतना भी नहीं समझती,
कि उससे जुड़ना तो प्रकृति है मेरी |
अब तो इसी इंतज़ार में रातें कटती हैं,
जाने कल मौसम फिर किस ओर करवट ले ||
No comments:
Post a Comment