Wednesday, 14 December 2011

एक मुलाकात

आज बात बहुत दूर से निकली है,
और बहुत दूर तलक जायेगी,
बात है कुछ उन दिनों की,
जब हम पढ़ा करते थे,
क्या? ये मत पूछना,
क्योंकि ये तो हमें भी नहीं पता,
दोस्तों के साथ महफ़िल जमा करती थी,
कभी कैंटीन तो कभी सीढ़ियों पे,
हर एक चेहरा अपना-सा लगता था,
पर अपना-सा तो एक ही चेहरा था,
इंतज़ार रहता था नयी सुबह का,
वो आती तो जान आ जाती थी,
अपने साथ सुबह की ताजगी लाती थी,
ना आये तो जान निकल जाती थी,
दिन काटे नहीं कटता था,
घड़ी की सुईयां भी मानो थम जाती थी,
आज तक हम मौन ही बैठे थे,
अपने मन की बात आँखों से ही कहते थे,
वो जान के भी अनजान बन जाती थी,
कभी प्यार तो कभी शक से निगाह दौड़ाती थी,
हम डर के फिर से दुबक जाते थे,
दिल के अल्फाज़ जुबां पे ही जम जाते थे,
आज हमने थोड़ी सी हिम्मत जुटाई,
दोस्तों ने भी थोड़ी पीठ थपथपाई,
कदम बढ़ाए कि कुछ कर दिखाएंगे,
ताज महल पर आज विजय पायेंगे,
पास जाते ही सारी तैयारी धरी रह गयी,
सब विचार-धारा जैसे नदी सी बह गयी,
वो भी थोड़ा घबराई, सकुचाई,
और फिर तपाक से बोली,
तुम ही हो जो मुझे घूरा करते हो,
मेरे पास से जाने-अनजाने गुजरा करते हो,
फ़ोन करते हो पर बात नहीं करते,
इतना भी क्यों मुझसे हो डरते,
मेरे मुख से बरबस ही निकल पड़ा,
डरता तुमसे नहीं, तुम्हारे जवाब से हूँ,
क्योंकि मैं तो जुड़ा जैसे एक ख्वाब से हूँ,
प्यार-दिल-दोस्ती सबके मायने एक से लगते हैं,
मन में दिन भर तुम्हारे ख्याल ही घूमते रहते हैं,
वो हल्के से शरमाई और थोड़ा-सा मुस्काई,
हाथ आगे बढ़ाया और धीरे से बोली,
अभी तो तुम भी मुझे अच्छे से नहीं जानते,
थोड़ा समय दोस्त बनकर क्यों नहीं गुजारते,
अब मेरी भी जान में जान थी आई,
दोस्तों को एक अच्छी सी दावत खिलाई,
चारों तरफ मानो जश्न का माहौल था,
उस दिन मुझसे खुशनसीब और कौन था,
इस मुलाकात ने जहां कुछ प्रश्नों को दफ़न किया,
वहीं कुछ नए प्रश्नों को जीवित था कर दिया||

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