Wednesday, 21 December 2011

बचपन की यादें

आज भी याद हैं वो दिन,
जब हम पानी वाली कुल्फी खाते थे,
सब्जी में मिर्चें लगती थी,
और गोल-गप्पे सी-सी करके गटक जाते थे,
अंगीठी में साग बनता था,
और मक्की की रोटी की चूरी बनवाते थे,
मंदिर के भंडारे में जाकर,
कढ़ी-चावल हाथों से चटकारे लेकर खाते थे,
मम्मी के हाथों में जादू था,
और पापा की गोदी में झट से चढ़ जाते थे,
कभी-कभी मम्मी के पर्स से,
एक-दो रूपये भी चुरा लिया करते थे,
काम ना मिलने का बहाना करके,
सारा-सारा दिन साइकिल चलाया करते थे,
फिर काम पूरा ना होने पर,
स्कूल में मार भी खाया करते थे,
होली में खुद बचके,
सबको छत से भिगाया करते थे,
छुट्टी लेने के बहाने,
पेट-दर्द से शुरू हो जाते थे,
छुट्टियों के इंतज़ार में,
बेसब्री से दिन गिना करते थे,
हिंदी में कुछ आये ना आये,
अंग्रेजी शब्दों को हिंदी में रटा करते थे,
छोटी-छोटी बातों पर भी,
बहुत सारे मज़े किया करते थे |

अब तो जैसे सब कुछ फीका लगता है,
बड़ी-बड़ी खुशियों में भी कम तीखा लगता है,
जिंदगी में जैसे झोल पड़ गया है,
हंसी का भी जैसे मोल बढ़ गया है,
हंसने से पहले सोचना पड़ता है,
कोई देख ना रहा हो, देखना पड़ता है,
जो किया फक्र से, वो नहीं कर सकते हैं,
बड़े जो हो गये हैं, दुनिया से अब डरते हैं ||

रिश्ते

रिश्ते बदल जाते हैं इक पल में ही,
रिश्तों के मायने भी बदल जाते हैं,
रिश्ता चाहे कोई भी हो, दोस्ती का ही सही,
जिन के साथ दिन-रात का पता नहीं रहता था,
आज हफ्ते-महीने गुजर जाते हैं बात हुए,
याद आते हैं बार-बार वो क्षण मुझे,
जब हम एक-दूसरे के पूरक हुआ करते थे,
बातें करते-करते रात छोटी पड़ जाती थी,
अब रात काटने के लिए तारे गिना करते हैं,
कभी तो हम साथ ही मिला करते थे,
आज मिलने का कारण भी नहीं मिलता है |


शायद वो राह में आगे बढ़ गये हैं,
और हम वहीं के वहीं हैं आज भी,
कभी-कभी तो लगता है मानो,
हमारी सोच ही पिछड़ गयी है,
उनकी दृष्टि से देखो तो भ्रम ही लगता है,
समय के साथ बदलना ही तो प्रकृति है,
मौसम बदलते हैं, दिन बदलते हैं,
पर क्या दिल भी बदला करते हैं,
हमने तो खुद को सदा सुदामा ही पाया,
और ढूंढते रहे एक कृष्ण-सा साथी,
जिसके स्पर्श मात्र से ही जीवन तर जाए,
मौखिक रूप में तो ये हमारा स्वार्थ ही है,
पर रिश्ते स्वार्थ के नहीं, प्यार के भूखे होते हैं |


स्वार्थ और प्यार के इस महीन अंतर को समझना ही जीवन है ||

Monday, 19 December 2011

रात का अकेलापन

सूरज फिर से ढलने लगा है,
और छाने लगा है रात का सन्नाटा,
जो अहसास दिला रहा है अकेलेपन का,
अब डर लगने लगा है इस अकेलेपन से,
कुछ पल रोशनी में जो रहो,
आदत-सी हो जाती है जैसे,
पर रोशनी तो आती है अपने मिजाज़ से,
उसे नहीं मतलब तुम्हारे सन्नाटे से,
तुम्हारे मन के भीतर छुपे भय से |

हर रात से ये ही सवाल करता हूँ मैं,
के तुम तो आ जाती हो हर रोज़,
मेरे मन को उद्वेलित करने,
कभी-कभी सुबह को भी निगल जाती हो,
कभी कोहरे की चादर बिछाकर,
तो कभी बादलों के साये में छिपाकर,
इंतज़ार करना निर्बलता है या असहायता,
जो भी है, जुड़ा है हर रात के आईने से,
और कल की उज्ज्वलता का इंतज़ार भी,
तो होता है रात की हथेली पर ही,
क्या रात इतना भी नहीं समझती,
कि उससे जुड़ना तो प्रकृति है मेरी |

अब तो इसी इंतज़ार में रातें कटती हैं,
जाने कल मौसम फिर किस ओर करवट ले ||

Wednesday, 14 December 2011

एक मुलाकात

आज बात बहुत दूर से निकली है,
और बहुत दूर तलक जायेगी,
बात है कुछ उन दिनों की,
जब हम पढ़ा करते थे,
क्या? ये मत पूछना,
क्योंकि ये तो हमें भी नहीं पता,
दोस्तों के साथ महफ़िल जमा करती थी,
कभी कैंटीन तो कभी सीढ़ियों पे,
हर एक चेहरा अपना-सा लगता था,
पर अपना-सा तो एक ही चेहरा था,
इंतज़ार रहता था नयी सुबह का,
वो आती तो जान आ जाती थी,
अपने साथ सुबह की ताजगी लाती थी,
ना आये तो जान निकल जाती थी,
दिन काटे नहीं कटता था,
घड़ी की सुईयां भी मानो थम जाती थी,
आज तक हम मौन ही बैठे थे,
अपने मन की बात आँखों से ही कहते थे,
वो जान के भी अनजान बन जाती थी,
कभी प्यार तो कभी शक से निगाह दौड़ाती थी,
हम डर के फिर से दुबक जाते थे,
दिल के अल्फाज़ जुबां पे ही जम जाते थे,
आज हमने थोड़ी सी हिम्मत जुटाई,
दोस्तों ने भी थोड़ी पीठ थपथपाई,
कदम बढ़ाए कि कुछ कर दिखाएंगे,
ताज महल पर आज विजय पायेंगे,
पास जाते ही सारी तैयारी धरी रह गयी,
सब विचार-धारा जैसे नदी सी बह गयी,
वो भी थोड़ा घबराई, सकुचाई,
और फिर तपाक से बोली,
तुम ही हो जो मुझे घूरा करते हो,
मेरे पास से जाने-अनजाने गुजरा करते हो,
फ़ोन करते हो पर बात नहीं करते,
इतना भी क्यों मुझसे हो डरते,
मेरे मुख से बरबस ही निकल पड़ा,
डरता तुमसे नहीं, तुम्हारे जवाब से हूँ,
क्योंकि मैं तो जुड़ा जैसे एक ख्वाब से हूँ,
प्यार-दिल-दोस्ती सबके मायने एक से लगते हैं,
मन में दिन भर तुम्हारे ख्याल ही घूमते रहते हैं,
वो हल्के से शरमाई और थोड़ा-सा मुस्काई,
हाथ आगे बढ़ाया और धीरे से बोली,
अभी तो तुम भी मुझे अच्छे से नहीं जानते,
थोड़ा समय दोस्त बनकर क्यों नहीं गुजारते,
अब मेरी भी जान में जान थी आई,
दोस्तों को एक अच्छी सी दावत खिलाई,
चारों तरफ मानो जश्न का माहौल था,
उस दिन मुझसे खुशनसीब और कौन था,
इस मुलाकात ने जहां कुछ प्रश्नों को दफ़न किया,
वहीं कुछ नए प्रश्नों को जीवित था कर दिया||

Monday, 12 December 2011

रिश्तों की डोर


हम चलते रहे और कारवां बनता गया,
कुछ थक गये और साथ छोड़ गये,
कुछ ने हमें सराहा और जुड़ते गये,
जिन्होंने छोड़ा, वो भी अपने ही थे,
जो साथ चले, वो भी अपने ही हैं,
फर्क सिर्फ इतना मात्र है कि,
जो साथ नहीं, वो अनभिज्ञ हैं,
रिश्तों की उस डोर से,
जो बांधे है उन्हें-मुझे आज भी,
जो साथ हैं, वो महसूस कर रहे हैं,
उस अहसास को, जो बसा है मुझ में,
और जोड़ रहा है कुछ अनकहे रिश्ते |

एक समय वो भी आएगा,
जब अस्तित्व के इस काल-चक्र में,
मानवता का हनन प्रश्न-चिन्ह लगाएगा,
तब ना मेरा कोई रूप होगा ना तेरा,
बचेगी बस वो डोर जो जोड़े मुझे तुझ से,
और जिसकी क्षमता का प्रमाण,
नहीं लगता उसके आकार से,
बल्कि उसमें बसे गूढ़ तत्व से,
जो दे रहा है एक नया स्वरुप,
हर उस एक जीवात्मा को,
जो जुडी है उस डोर के माध्यम से,
चाहे-अनचाहे, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में ||

Wednesday, 7 December 2011

माँ


मैं माँ हूँ,
तेरे जीवन का आधार हूँ,
उंगली पकड़ के चलना सिखाया,
तुतला-तुतला के बोलना सिखाया,
तेरी जरूरतें मेरी बनती गयी,
और मेरी जरूरतें विलुप्त होती गयी,
तेरी ख़ुशी में ही अपनी ख़ुशी को पाया,
मेरा तो संसार भी तुझ में ही समाया||

तेरी गलतियों को भी सबसे छुपाया,
छोटी-छोटी गलतियों को नज़र-अंदाज़ किया,
बड़ी-बड़ी पे कभी डांट तो कभी प्यार से समझाया,
ज्यादा परेशान हुई तो जड़ दिए दो हाथ भी,
पर अगले ही पल तुझ पे अपना प्यार बरसाया,
कभी घर से तो कभी समाज से तुझे बचाया,
दिल और दिमाग की बहस भी हुई,
पर माँ के दिल के आगे दिमाग की हार ही हुई||

समय-चक्र चला, परिवर्तन आया,
अगले ही पल मैंने खुद को असहाय पाया,
मैं वहीं थी और तू आगे बढ़ गया था,
कुछ ही पल में परिदृश्य ही बदल गया था,
अब तुझे मेरी नहीं, मुझे तेरी दरकार थी,
सूरज चढ़ रहा था तो कहीं शाम ढल रही थी,
कभी-कभी तो मुझे अपना होना भी खलता है,
क्या समय के साथ जीवन का हर दृश्य बदलता है||


अब तो एकमात्र मौन इच्छा बची है,
जिस तरह साथ रही तुम्हारे प्रथम पग से,
तुम साथ रहो मेरे अंतिम पग तक ||

Tuesday, 6 December 2011

याद


सुबह-सुबह की पालकी पे,
सूरज की किरणें आती हैं,
हल्की-हल्की ओस की बूँदें,
याद तेरी लाती हैं|


दिन चढ़ा, कोहरा छंटा,
हवा में ताजगी आने लगी,
याद तेरी फिर छाने लगी,
सूरज ने थोड़ी गर्मी बढाई,
दिन खिला, दिल हिला,
कदम खुद-ब-खुद बढ़ने लगे,
तेरी याद के खुमार चढ़ने लगे,

सांझ ने दस्तक दी मुहाने पे आके,
हवा की ठंडक कनखियों से झांके,
सिहर उठा तन-बदन,
जब तेरी याद छू गयी मेरा ये मन|
चाँद ने बिखेरी चांदनी,
तारों ने चादर थी बिछाई,
तड़प उठा रोम-रोम मेरा,
जब याद तेरी उस रात थी आई||

Sunday, 27 November 2011

A Journey

When I got my first vehicle,
Though it was just a cycle,
Starting spending days with it
And nights, dreaming about it,
I was excited like anything,
Adored it like special something.

Got surprised grades that month,
Same happened to Gogo and Sant,
We started learning and crashing together,
After some days, we were racing with each other,
People started complaining when speed started thrilling,
Distances got shrinked in a while, we started dreaming to cross the Nile.

Years later, got a new bike,
The history got repeated,
Again grades made everyone surprised,
But with many more surprises too,
Finally, we went on a long ride,
Memories are still fresh in mind.

Then graduated to car and now to Sedan,
Long drives and long trips at the dawn,
Full of fun with lovely friends,
All are planning to set new trends,
Time is not the hurdle now,
It’s the mood which brings the WoW.

Thursday, 24 November 2011

बचपन

एक मोहल्ला था अपना,
जहाँ था बीता बचपन अपना,
मिलता था बस अपनापन,
कटता था सुखद जीवन,
इंट-मिटटी से घर थे बने,
छतों की तरह दिल थे जुड़े,


इंटों की सड़क पे साइकिल चलाना,
सीखते-सीखते गिर पड़ना,
मिटटी से जख्मों को ढकना,
अमरुद के पेड़ से कच्चे अमरुद खाना,
अनार चुराना, दोपहरी में बेर खाना,
कंचे खेलना, फिर उन्हें छुपाना,

पडोसी के शीशे तोडना,
आंटी का शिकायत लेके घर आना,
मम्मी का सबकी क्लास लगाना,
सारा-सारा दिन घर ना आना,
छोटे-छोटे बहाने बनाना,
पढने बैठते ही नींद आ जाना,

छुट्टियों का बेसब्री से इंतज़ार करना,
छुट्टियों के काम को स्कूल में ही ख़त्म करना,
कहीं जाने से पहले सबको बताना,
नये कपडे-खिलौने सबको दिखाना,
छोटी-छोटी खुशियों को समेटना,
ऐसा था हमारा बचपन,

कहाँ गया वो सुनहरा बचपन,
कहते हैं हम बड़े हो गये हैं,
लगता है जैसे सिमट गये हैं,
बड़ी खुशियाँ भी छोटी लगती हैं,
हर बात में कोई गोटी लगती है,
जिंदगी में सहजता नदारद है,

जिसके पीछे दौड़ रहे हैं,
क्या वही जीने का मकसद है||

इक सुबह

दफ्तर को जाते पये थे हम,
सीटी बजाते पये थे हम,
इक कुत्ती पयी निगाह में,

जो सुत्ती पयी सी राह में,
हमने भी मन खिला लिया,
उस कुत्ती को ठुद्दा मारिया,
कुत्ती के टिड विच बल पयी,
ओ पीछे-पीछे चल पयी,
हमने भी लत्त घूमा दी,
कुत्ती दी बुथी सुजा दी,
कुत्ती ने दंदी वड्ड ली,
पीनी दी पीनी कड्ड ली,
मैं अग्गे-अग्गे पज पया,
इक कुड़ी दे विच बज पया,
फेर ना पूछो यारों,
ओ कुत्ती तां पीछा छड गयी,
ओ कुड़ी पीछे पड़ गयी|

Tuesday, 22 November 2011

दिनचर्या

सर्दी की सुबह है,
कोहरा छंटने लगा है,
धूप खिलने लगी है,
हवा में ठंडक है,
फूलों में रंगत है,
चाय की गरम प्याली है,
किताबें बिखरी पड़ी हैं,
हम बहाने से छत पर पहुंचे,
वो कभी बाल सुखाने,
तो कभी कपड़े सुखाने,
इक झलक दिखाया करती है,
हम कागज़ के पन्नों पे,
पता नहीं क्या-क्या लिखते हैं,
हाल-ए-दिल को शब्दों में संजोते हैं,
जब शब्द कम पड़ जाते हैं तो,
किताबों के पन्ने पलटते हैं,
कुछ समझने का प्रयत्न करते हैं,
समय बढ़ता रहता है,
दिन ढलता रहता है,
और फिर इंतज़ार होता है,
कल की सुबह का|

Waiting...

Sometimes, I do feel very low...

Want to talk to someone...
Want to cry for sometime...
Doesn't know the reason behind...
Doesn't know the right one...


Hope to get a lonely corner...
Hope to get warmth from you...
Find crowd everywhere...
Find you also busy...

Waiting for right time to come...
Still waiting, waiting, waiting...

Wednesday, 2 November 2011

पंचतत्व

पंचतत्व से बना सब पंचतत्व में लीन होने को,
कहीं कुछ ज्यादा तो कुछ मिला कम,
और हो गया एक नए मानव का जन्म|

रंग भी होते तीन हैं - लाल, हरा, नीला,
मिल के बन जाते अनेक हैं,
लाल बढ़ा तो रगों का खून बन गया,
हरा प्रकृति ने अपने लिए रख लिया,
नीला आसमान को भाया,
बाकी सबको मिलाकर हर पल नया दृश्य बन आया|

यूँ ही बना मानव भी,
कहीं अग्नि ने तो कहीं शीतलता ने अपना प्रभाव दिखाया,
वायु वेग सा बढ़ता हुआ आगे,
आकाश तक पहुँचने की चाह लिए,
मिल गया उसी मिट्टी में, जहाँ से उठा तो वो,
पंचतत्व से बना पंचतत्व में ही लीन हो गया||

पंचतत्व

पंचतत्व से बना सब पंचतत्व में लीन होने को,
कहीं कुछ ज्यादा तो कुछ मिला कम,
और हो गया एक नए मानव का जन्म|
रंग भी होते तीन हैं - लाल, हरा, नीला,
मिल के बन जाते अनेक हैं,
लाल बढ़ा तो रगों का खून बन गया,
हरा प्रकृति ने अपने लिए रख लिया,
नीला आसमान को भाया,
बाकी सबको मिलाकर हर पल नया दृश्य बन आया|
यूँ ही बना मानव भी,
कहीं अग्नि ने तो कहीं शीतलता ने अपना प्रभाव दिखाया,
वायु वेग सा बढ़ता हुआ आगे,
आकाश तक पहुँचने की चाह लिए,
मिल गया उसी मिट्टी में, जहाँ से उठा तो वो,
पंचतत्व से बना पंचतत्व में ही लीन हो गया||

Tuesday, 1 November 2011

जीवन-सत्य

कैसा जीवन है ये,
कल आया था तू इस संसार में,
कल चले भी जाएगा,
ना कुछ लाया था,
ना कुछ लेके जाएगा|
जो है यहाँ, वही तेरा है,
जो पाना है, यहीं पायेगा,
जो खोएगा, यहीं मिट जाएगा|
क्यों करता है द्वेष किसी से,
काहे पाले ईर्ष्या मन में,
जब सब कुछ रह जाना इस जग में||

प्यार से बोलोगे तो प्यार मिलेगा,
द्वेष रखोगे तो द्वेष बढेगा,
तेरे मन के हर विचार का आईना,
तेरी छवि तुझे दिखाएगा|
जो बनाया खून-पसीने से,
इसी मिट्टी में लीन हो जाएगा|
जिसका जितना रिश्ता तुझ से,
उतना ही तू उसे याद आएगा,
थोड़े समय के बाद
तेरा चेहरा भी धूमिल हो जाएगा|
क्यों करता है द्वेष किसी से,
काहे पाले ईर्ष्या मन में,
जब सब कुछ रह जाना इस जग में||

जीना है तो आज में जी ले, 
क्योंकि कल तो मिट्टी हो जाएगा,
ना जी सका अगर आज में तू,
ये आज ना फिर लौट के आएगा|
ढाई अक्षर प्रेम के बोल सबसे,
और तेरा जीवन तर जाएगा,
ना दुखा दिल किसी का अनजाने में भी,
वो तुझे हर पल तड्पाएगा|
क्यों करता है द्वेष किसी से,
काहे पाले ईर्ष्या मन में,
जब सब कुछ रह जाना इस जग में||

Sunday, 30 October 2011

इंद्र-धनुष


जामुन से चुराया जामुनी,
समंदर को छाना तो मिला नीला,
आसमान से लिया आसमानी,
पत्तों ने दिया हरा,
पीला मिला खिली हुई धूप से,
नारंगी दिया चढ़ते हुए सूरज ने,
लाल लिया रगों में दौड़ते लहू से,
और बना एक सतरंगी सपना|
सतरंगी सपना नहीं है ये,
और ना हैं ये सात रंग,
ये तो जुड़े हैं सिर्फ तुमसे,
तुम्हारी परछाई से,
और हैं मेरे जीने का सहारा,
मेरे अस्तित्व का प्रमाण|
तलाश है उसी इंद्र-धनुष की,
जो समेटे हो इन सबको,
अपने आगोश में, और
अवगत कराये तुम्हारे इस प्रारूप से||

Monday, 3 October 2011

मोहब्बत

जरूरी नहीं जो तेरा है वो तेरे पास हो,
जरूरी नहीं जो पास है, वो तेरा हो,
जरूरी नहीं मोहब्बत में पाना उसको,
जरूरी है तो बस के तू उसके लिए हमेशा ख़ास हो...

मोहब्बत

जरूरी नहीं जो तेरा है वो तेरे पास हो,
जरूरी नहीं जो पास है, वो तेरा हो,
जरूरी नहीं मोहब्बत में पाना उसको,
जरूरी है तो बस के तू उसके लिए हमेशा ख़ास हो...

नींद

नींद ने दस्तक दी मुहाने पे आके,
रात की परछाई सिरहाने से झांके,
हमने भी मन बना लिया बंद करके आँखें,
अब याद करेंगे तुम्हें सपनों में जाके...

Monday, 19 September 2011

बस इतना सा ख्वाब है...


ये वक़्त थम जाए,
रस्ते रुक जाएं,
गूंजे तो बस
चिड़ियों के चहचहाने की आवाज,
कोयल की कूक...
मिले तो बस
चाँद की शीतल चांदनी,
तारों की छाँव...
चाहूं तो बस
झरने का कल-कल बहता पानी,
सर्दी की धूप...
सोचूं तो बस
सिर्फ तुम्हें,
सिर्फ तुम्हें और सिर्फ तुम्हें...
बस इतना सा ख्वाब है...

Wednesday, 10 August 2011

तुम

आँखें खोलूं तो पाऊं तुम को
बंद कर लूं तो भी तुम हो
सोना चाहूं तो सपने में तुम हो
जागूं तो हर पल में तुम हो
सोच रहा हूँ क्यों हो ऐसी
मेरे तो पल-पल में तुम हो
लगने लगा क्यूँ तुम्हे मैं पराया
मेरी तो हर धड़कन में तुम हो

जीवन से रहा नहीं मोह तुम बिन
फिर भी मेरी हर सांस में तुम हो
हंसी से नाता है छूटा
आंसू कि हर आस में तुम हो
ना जी पा रहा हूँ तुम बिन
मरने के अहसास में तुम हो
समझ ना पा रही हो तुम मुझको
मेरी तो हर आस में तुम हो

सूरज की हर किरण है कहती
मेरे तो विश्वास में तुम हो
हवा के ठंडे झोंके से पूछा
कहता जीवन का सार ही तुम हो
फिर क्यों हो खफा हमसे इतनी
जब सांसों की डोर में तुम हो
ना सोऊं ना मैं जागूं
इस बेचैनी का आधार तो तुम हो

जहां भी देखूं तुमको पाऊं
मेरे मन का प्यार तो तुम हो
इतना बुरा हूँ, मैं नहीं जानता
मेरे लिए तो खुदा भी तुम हो
जीवन के हर मोड़ पे देखो
मेरी हर याद में तुम हो
एक बार अपना लो मुझ को
मेरा तो आगाज़ भी तुम हो

अब तो कलम की स्याही भी कहती
मेरे मन के हर विचार में तुम हो
|

Wednesday, 8 June 2011

सपने

एक हवा का झोंका आया
जो सब कुछ उड़ा ले गया
कुछ सपने थे जो कभी अपने ना थे
बह गए उसी लय में
जिनमें जाना था उन्हें
कुछ सपने थे जो अपने ना थे
पर उस अपनेपन का अहसास करा गए
कि भूलकर भी ना भूल पाऊंगा
उन अपनों को और उस हवा के झोंके को||
एक बदली आयी
जो दिल तक बदल गयी
जाते ही जिसके, खुद को पाया
एक बियावान अकेले में
साथियों को ढूँढा पर पाया
एक बदला हुआ स्वरुप
जिससे अनभिज्ञ रहा आज तक
पर धन्यवादी हूँ उस बदली का
जिसने कराया सच्चाई से परिचय||
पानी की बौछार ने धो दिया
उन रिश्तों को जिन्हें अपना कहता रहा
पर अपना बना ना सका
वो एक सपना ही तो था
जो सपने की तरह सपने में ही खो गया
मन को समझा ही लिया
कि सपने सच नहीं होते
बल्कि होते हैं बहने के लिए
उसी बौछार में, जिसे सोचकर भी
सिहरन सी हो उठती है||
हवा, बदली और पानी क्या नहीं बदल सकते,
सोचते-सोचते थक सा गया हूँ|